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1859 को राजा के एक आदेश के जरिए महिलाओं के ऊपरी वस्त्र न पहनने के कानून को बदल दिया गया।

 आजकल देश में संस्कृति को लेकर एक अजीबोगरीब बहस छिड़ी हुई है। कोई कहता है महिलाओं को फ़टी जीन्स नहीं पहननी चाहिए, कोई कह रहा पाश्चात्य संस्कृति ने भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात किया है। इतिहास की पड़ताल करने से पता चलता है कि संस्कृति की बातें करने वाले भारत में ही महिलाओं को अपने स्तन ढकने का अधिकार पाने के लिए भी बड़ा संघर्ष करना पड़ा था। 



केरल के त्रावणकोर इलाके पर वहां की महिलाओं को 26 जुलाई 1859 में वहां के महाराजा ने अवर्ण औरतों को।शरीर के ऊपरी भाग पर कपड़े पहनने की इजाजत दी। उन महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज पहनने का हक पाने के लिए 50 साल से ज्यादा सघन संघर्ष करना पड़ा। इस कुरूप परंपरा की चर्चा में खास तौर।पर निचली जाति नादर की स्त्रियों का जिक्र होता है क्योंकि अपने वस्त्र पहनने के हक के लिए उन्होंने ही सबसे। पहले विरोध जताया।


उस समय न सिर्फ अछूत ही नहीं बल्कि नंबूदिरी ब्राहमण और क्षत्रिय नायर जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने से रोकने के कई नियम थे। नंबूदिरी औरतों को घर के भीतर ऊपरी शरीर को खुला रखना पड़ता था। वे घर से बाहर निकलते समय ही अपना सीना ढक सकती थीं। लेकिन मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था। नायर औरतों को विशेषकर ब्राह्मण पुरुषों के सामने अपने स्तन खुले रखने होते थे।



सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें कहीं भी अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी। पहनने पर उन्हें सजा भी हो जाती थी। एक घटना बताई जाती है जिसमें एक निम्न जाति की महिला अपना सीना ढक कर महल में आई तो रानी अत्तिंगल ने उसके स्तन कटवा देने का आदेश दे डाला। इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19 वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुईं। 18 वीं सदी के अंत और 19 वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर नादन जाति के लोग, चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चले गए। 


बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदल कर ईसाई बन जाने औऱ यूरोपीय असर की वजह से इनमें जागरूकता ज्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढकने लगी थीं। धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम को अपनाया। इस तरह महिलाएं अक्सर इस सामाजिक प्रतिबंध को अनदेखा कर सम्मानजनक जीवन पाने की कोशिश करती रहीं। यह कुलीन मर्दों को बर्दाश्त नहीं हुआ। ऐसी महिलाओं पर हिंसक हमले होने लगे। जो भी इस नियम की अवहेलना करती उसे सरे बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता।


अवर्ण अथवा दलितों को छूना उस वक्त अधर्म माना जाता था इसलिए अवर्ण औरतों को छूना न पड़े इसके लिए सवर्ण पुरुष लंबे डंडे के सिरे पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते। यहां तक कि वे औरतों को इस हाल में रस्सी से बांध कर सरे आम पेड़ पर लटका देते ताकि दूसरी औरतें ऐसा करते डरें। 


गैरब्राह्मण महिलाओं को स्तन ढकने की तो मनाही थी साथ ही महिलाओं पर स्तन टैक्स भी लगाया जाता था। वे बिना टैक्स चुकाए अपने नवजात शिशु को अपने ही स्तन से दूध नही पिला सकतीं थीं। केरल के चेर्थाला की गरीब महिला #नंगेली_देवी के पास टैक्स चुकाने के लिए पैसे नही थे और जब वे माँ बनीं तो अपने ही नवजात शिशु से दूर कर दी गईं। तो विरोध स्वरुप उसने अपने स्तन काटकर टैक्स अधिकारियों को दे दिये। इसके बाद उनकी मौत हो गई। उनका पति चिरुकंडन जब घर लौटकर आये तो उनने भी आत्महत्या कर ली। 


इसके बाद इस कुप्रथा के खिलाफ तीव्र आंदोलन हुआ। 1812 में ब्राह्मण राजा को टैक्स की यह कुप्रथा बंद करने के लिए बाध्य होना पड़ा। हालांकि इसके बाद भी गैरब्राहमण महिलाओं को स्तन ढंकने के अधिकार से वंचित रखा गया। स्तन ढकने के लिए अंग वस्त्र पहनने के अधिकार के लिए अय्यंकाली के नेतृत्व में लंबी लड़ाई  चली, लेकिन उस समय अंग्रेजों का राजकाज में भी असर बढ़ रहा था। 


1814 में त्रावणकोर के दीवान कर्नल मुनरो ने आदेश निकलवाया कि ईसाई नादन और नादर महिलाएं ब्लाउज पहन सकती हैं। लेकिन इसका कोई फायदा न हुआ। उच्च वर्ण के पुरुष इस आदेश के बावजूद लगातार महिलाओं को अपनी ताकत और असर के सहारे इस शर्मनाक अवस्था की ओर धकेलते रहे। आठ साल बाद फिर ऐसा ही आदेश निकाला गया। एक तरफ शर्मनाक स्थिति से उबरने की

चेतना का जागना और दूसरी तरफ समर्थन में अंग्रेजी सरकार का आदेश। और ज्यादा महिलाओं ने शालीन कपड़े पहनने शुरू कर दिए। इधर उच्च वर्ण के पुरुषों का प्रतिरोध भी उतना ही तीखा हो गया। 


एक घटना बताई जाती है कि नादर ईसाई महिलाओं का एक दल निचली अदालत में ऐसे ही एक मामले में गवाही देने पहुंचा। उन्हें दीवान मुनरो की आंखों के सामने अदालत के दरवाजे पर अपने अंग वस्त्र उतार कर रख देने पड़े। तभी वे भीतर जा पाईं। संघर्ष लगातार बढ़ रहा था और उसका हिंसक प्रतिरोध भी। सवर्णों के अलावा राजा खुद भी परंपरा निभाने के पक्ष में था। क्यों न होता। आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलाएं फूल बरसाती हुई खड़ी रहें।



रास्ते के घरों के छज्जों पर भी राजा के स्वागत में औरतों को ख़ड़ा रखा जाता था। राजा और उसके काफिले के सभी पुरुष इन दृष्यों का भरपूर आनंद लेते थे। आखिर 1829 में इस मामले में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। कुलीन पुरुषों की लगातार नाराजगी के कारण राजा ने आदेश निकलवा दिया कि किसी भी अवर्ण जाति की औरत अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढक नहीं सकती। अब तक ईसाई औरतों को जो थोड़ा समर्थन दीवान के आदेशों से मिल रहा था, वह भी खत्म हो गया। अब हिंदू-ईसाई सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और उनके विरोध की ताकत बढ़ गई। सभी जगह महिलाएं पूरे कपड़ों में बाहर निकलने लगीं।


इस पूरे आंदोलन का सीधा संबंध भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास से भी है। विरोधियों ने ऊंची जातियों के लोगों और उनके दुकानों के सामान को लूटना शुरू कर दिया। राज्य में शांति पूरी तरह भंग हो गई। दूसरी तरफ नारायण गुरु और अन्य कुछेक सामाजिक, धार्मिक गुरुओं ने भी इस सामाजिक रूढ़ि का विरोध किया। मद्रास के कमिश्नर ने त्रावणकोर के राजा को खबर भिजवाई कि महिलाओं को कपड़े न पहनने देने और राज्य में हिंसा और अशांति को न रोक पाने के कारण उसकी बदनामी हो रही है। 


अंग्रेजों के और नादर आदि अवर्ण जातियों के दबाव में आखिर त्रावणकोर के राजा को घोषणा करनी पड़ी कि सभी महिलाएं शरीर का ऊपरी हिस्सा वस्त्र से ढंक सकती हैं। 26 जुलाई 1859 को राजा के एक आदेश के जरिए महिलाओं के ऊपरी वस्त्र न पहनने के कानून को बदल दिया गया। कई स्तरों पर विरोध के बावजूद आखिर त्रावणकोर की महिलाओं ने अपने वक्ष ढकने जैसा बुनियादी हक भी छीन कर लिया।


आज भी तमिलनाडु में एक ऐसा मन्दिर है जहां हर वर्ष एक खास रस्म होती है जिसमें नाबालिग बच्चियों को ऊपरी हिस्से में कपड़े नहीं पहनने पड़ते हैं। जबकि कर्नाटक आदि मंदिरों देवदासियों को व्यथा से जन जन वाकिफ है। शनि शिंगणापुर, सबरीमाला, हिमाचल, उत्तराखंड के कई मंदिरों में महिलाओं का प्रवेश आज भी वर्जित है। मासिक धर्म आदि पर आज भी महिलाओं को चिढ़ाते कई नियम बरकरार है। हम दूसरे देश, दूसरे धर्मों की कुरीति से तुलना करके अपनी बुराई तो बताना चाहते हैं पर खुद पर सुधार की बातें अभी भी अहंकार की कसौटी में रचे बसे है। 

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